पेड़ की शाख़ से बिछड़ते पत्ते की तरह,
ये चंचल मन अब हो चुका था तरल,
ठंड में ओठों से निकलते धुंए में छिपे,
विचारों का अध्ययन जैसे होता है विरल
वह साथ अवश्य थी, लेकिन निगाहों में शंका लिए,
लब मेरे भी खुलते थे कभी, लेकिन आजकल कुछ कांपते हुए
वह साथ अवश्य थी, पर साथ अब वैसा था नहीं,
जैसे शब्द और कलम के होते भी, विचारों का शहर खो जय कहीं
घडी की सुई और तारीख़ के साथ,
उस प्रेम का वेग नहीं हुआ कुछ कम,
यादें वैसी की वैसी ही रहीं,
एक शांत से सैलाब में बहते रहे हम
मौसम गुज़रते रहे, साथ मेरे साथ ने पर छोड़ा नहीं,
उस पुराने प्रेम से जो हुआ था विफल,
यह नया प्रेम अब लगा, कुछ द्रड़ और सरल,
फिर एक पल अहसास हुआ, जिसकी तालाश थी शख्स सामने था वही
आँखों में मेरी, बदलता बदलाव बहा,
कुछ देर ख़ुशी और अश्कों का नृत्य भी चला,
उस भूले हुए स्पर्श का अहसास भी मिला,
उन नज़रों ने फिर मेरी तरफ देखा और कहा
“पेड़ की शाख़ से बिछड़ते पत्ते की तरह,
प्रेम नहीं है मेरा कमज़ोर,
हमेशा के लिए, विश्वास है मुझे,
बांधे रखेगी हमें एक अन्देखी डोर…”